हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

ये कैसा चांद है !

सीना-ए-आसमां पे छुपा चांद है.
बदरी हया की हाय घिरा चांद है.

बड़ी अजब करे आंखमिचौली,
सांसों के जैसे चला चांद है.

रात अकेले दिया के उजाले,
आग लगाए जला चांद है.

साथ हमेशा रहता है पल भर,
यादों के जैसे हुआ चांद है.

मुस्कुराता कोई आंखों में मेरे,
आंसू बन के बहा चांद है.
                   (अभय श्रीवास्तव)

रविवार, 19 जनवरी 2014

भूख रुलाती नहीं अब

आंखों में उतर आई है भूख.
नई दुल्हन सी लजाई है भूख.

कहानी सुनकर बच्चे का सो जाना,
कुन्ती के चूल्हे पे ललचाई है भूख.

तुम्हारे गोलगप्पे से सस्ती है उसकी रोटी,
जूठे दोने सी छितराई है भूख.

वो अपनी मजबूरियों पे ज्यों मुस्कुराया,
बेबस मां सी छटपटाई है भूख.

ताक धिन धिन दुनिया बहुरंगी,
अपनी तबीयत पे कतराई है भूख.

ज़िंदगी बनके गुड़हल फैलाती रही बाहें,
बारिश की बूंदों में समाई है भूख.
                      (अभय श्रीवास्तव)
                  

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

इश्क से ना, ना कहिए

गीली मिट्टी को मुट्ठी में भर लेना.
उनके यकीन पर यूं निशां कर लेना.

बिगड़े बच्चों से उनके खयालात हैं,
खेल में दिल तोड़ें तो आह भर लेना.

वे खुदा हैं तय करेंगे जनम का रिश्ता,
मर भी जाओ तो दिल बड़ा कर लेना.

कहीं सुना है कि इश्क इबादत है,
उनकी मजबूरियों से वफ़ा कर लेना.
                          (अभय श्रीवास्तव)

बुधवार, 1 जनवरी 2014

मेरा मुजफ्फरनगर और नया साल !

इक मुजफ्फरनगर
मेरे सीने में दबा है कहीं,
नए साल पर
पिज्जा की हर बाइट
और कोक की हर सिप के साथ
मुजफ्फरनगर की सिहरन कंपकंपाती है.
कश्मीर की बर्फीली हवा-
मेरे कान को गुदगुदाती है,
मुझे रोमांच सूझता है,
लेकिन मेरा मुजफ्फरनगर-
मेरी आंखों में उतर आता है.
कोई है जो
मेरा मुजफ्फरनगर छीनना चाहता है,
मुझे हनी सिंह यो यो
सुनाया जाता है.
मुजफ्फरनगर के ख़रीदार भी बहुत हैं,
सब बोली लगा रहे हैं,
मेरी कीमत- एक वोट
महान लोकतंत्र की सबसे कीमती चीज़ है.
...और
मेरे सीने में दबा मुजफ्फरनगर
चुपचाप सो जाना चाहता है.

(अभय श्रीवास्तव)

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

जी लो ज़िंदगी

ज़िंदगी के सवालों को कुछ वक़्त दे दो.
तेज़ चढ़ी धूप को दरख़्त दे दो.

दम घुट रहा हवा का कमरे में,
थोड़ी रौशनी का बंदोबस्त दे दो.

हड्डी-पसली टूटती रही ख़्वाबों की,
आंखें नंगी रखने का आदेश सख़्त दे दो.

वो तो सदियों से मुफ़लिस रहा है,
इक बार उसको ताज-ओ-तख़्त दे दो.

किसी स्वर्ग-नर्क में अब नहीं होता फ़ैसला,
शहर की भीड़ में सबको इक दस्त दे दो.
                           (अभय श्रीवास्तव)

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