हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

रविवार, 27 मार्च 2016

अख़लाक. वेमुला. नारंग की मौत पर

हमारी नसों में रुदालियां क्यों बह रही हैं ?
चीखती हुईं अपलक !

मृत्यु क्रंदन तो है, किंतु
मृत्यु शोक नहीं !

हमारे घरों में उदासियां क्यों रह रही हैं ?
सुबह से सांझ तक !

किसी अख़लाक,
वेमुला या नारंग की मौत
ख़बर तो है ! लेकिन
क्या मायने भी रखती है,
जब इंसान ही मरा हुआ हो !

भीड़ मारती है, बाहर की
ज़ेहन के भीतर की !

भीड़ का रंग होता है, किंतु
भीड़ का चेहरा नहीं !

हमारे मोहल्लों में खाइयां क्यों रह रही हैं ?
चौहद्दियों की मियाद तक !
हमारी नसों में रुदालियां क्यों बह रही हैं ?
चीखती हुईं अपलक !

इन लाशों को,
सस्ती मत समझिए
सरकारें बनती-बिगड़ती हैं !
'मुर्दातंत्र' में मौत की
कीमत तय हो रही है !

जनाजा निकल रहा है,
जान अटकी हुई है !

मरने वाला डरा हुआ है, किंतु
मरने वाला मरा नहीं !

हमारी संवेदनाओं में चीटियां क्यों बिखर रही हैं ?
लोभ की व्याधि तक !
हमारी नसों में रुदालियां क्यों बह रही हैं ?
चीखती हुईं अपलक !

अख़लाक-वेमुला-नारंग
सिर्फ़ किरदार हैं,
दुखांत नाटकों के !
किसी के आंसू सच्चे नहीं
सभी अभिभूत हैं !

कोई अपनी मौत नहीं मरता,
तुम्हारे चश्मे से क्यों मरता है ?

मौत बेबस है, किंतु
मौत बोझिल नहीं !

हमारी बनावटों में सच्चाइयां क्यों पनप रही हैं ?
बेझिझक बेझिझक !
हमारी नसों में रुदालियां क्यों बह रही हैं ?
चीखती हुईं अपलक !
                                                            (अभय श्रीवास्तव)

गुरुवार, 10 मार्च 2016

एक राजनीतिक कविता

मैंने एक राजनीतिक कविता लिखी है.
कविता शीशे की तरह साफ है.
पानी की तरह स्वच्छ.
कलबुर्गी से अख़लाक
और असहिष्णुता.मालदा.कन्नूर
होते हुए ये कविता जेएनयू पहुंचती है.
हालांकि कविता में इनका जिक्र नहीं है,
लेकिन कविता यही है.
दो हिस्से हैं इस कविता के.
उम्मीद करता हूं कि आप वहां ज़रूर पहुंचेंगे
जहां मैं आपको ले चल रहा हूं.

पहला हिस्सा.

बग़ावत के ख़रीदार खड़े हैं.
विभीषण सरे बा़ज़ार खड़े हैं.

राम सच्चे या रावण झूठा,
रामलीला में किरदार मज़ेदार खड़े हैं.

इन दिनों सत्ता का पता बदला हुआ है,
झांक के देखो कुछ किरायेदार खड़े हैं.

कुछ दोस्तों को आजकल अज़नबी सा लगता हूं,
ख़ता मेरी इतनी कि वो उस पार खड़े हैं.

जब उमस हो खिड़कियां खोल दी जाती हैं,
कमरे में बेईमानी के गुबार खड़े हैं.

बग़ावत करूं तो किससे करूं,
कई प्रधानमंत्री तैयार खड़े हैं.

माना कि तुम सही और हम ग़लत,
भैया...हम भी इज्ज़तदार खड़े हैं.


दूसरा हिस्सा.


चलो फ़ना कर लें ख़ुद को,
मगर रास्ता रोके कुछ दिलदार खड़े हैं.

बहुत तक़लीफ़ होती है गर चौराहा नया हो,
हर रास्ते पर पहरेदार खड़े हैं.

लौटना होगा गर पहचानना है ख़ुद को,
मोहल्ले में ही चंद यार खड़े हैं.

जैसे लंका जीतकर भी श्रीराम अयोध्या लौटे,
विभीषण नहीं अपनों के ऐतबार बड़े हैं.

                                               (अभय श्रीवास्तव)

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

सियासी चेहरे

 काले देखे, गोरे देखे, और सियासी चेहरे देखे।थोड़े से चितकबरे देखे, धूर्त बड़े वे गहरे देखे।
                                                         

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

कविताओं का सच

कविताओं में ज़रूरी नहीं, कि सच लिखा हो।
क्या कविताएं भी, सिर्फ़ शब्दों की पैकेजिंग हो सकती हैं ?

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