मैंने एक राजनीतिक कविता लिखी है.
कविता शीशे की तरह साफ है.
पानी की तरह स्वच्छ.
कलबुर्गी से अख़लाक
और असहिष्णुता.मालदा.कन्नूर
होते हुए ये कविता जेएनयू पहुंचती है.
हालांकि कविता में इनका जिक्र नहीं है,
लेकिन कविता यही है.
दो हिस्से हैं इस कविता के.
उम्मीद करता हूं कि आप वहां ज़रूर पहुंचेंगे
जहां मैं आपको ले चल रहा हूं.
पहला हिस्सा.
बग़ावत के ख़रीदार खड़े हैं.
विभीषण सरे बा़ज़ार खड़े हैं.
राम सच्चे या रावण झूठा,
रामलीला में किरदार मज़ेदार खड़े हैं.
इन दिनों सत्ता का पता बदला हुआ है,
झांक के देखो कुछ किरायेदार खड़े हैं.
कुछ दोस्तों को आजकल अज़नबी सा लगता हूं,
ख़ता मेरी इतनी कि वो उस पार खड़े हैं.
जब उमस हो खिड़कियां खोल दी जाती हैं,
कमरे में बेईमानी के गुबार खड़े हैं.
बग़ावत करूं तो किससे करूं,
कई प्रधानमंत्री तैयार खड़े हैं.
माना कि तुम सही और हम ग़लत,
भैया...हम भी इज्ज़तदार खड़े हैं.
दूसरा हिस्सा.
चलो फ़ना कर लें ख़ुद को,
मगर रास्ता रोके कुछ दिलदार खड़े हैं.
बहुत तक़लीफ़ होती है गर चौराहा नया हो,
हर रास्ते पर पहरेदार खड़े हैं.
लौटना होगा गर पहचानना है ख़ुद को,
मोहल्ले में ही चंद यार खड़े हैं.
जैसे लंका जीतकर भी श्रीराम अयोध्या लौटे,
विभीषण नहीं अपनों के ऐतबार बड़े हैं.
(अभय श्रीवास्तव)
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