हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

राम का प्रेम झूठा है

मैं
मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं
सीते !

मैंने तुम्हें
बल से हासिल किया,
प्रेम से नहीं.

तुम छली गई सीते !
स्वयंवर तुम्हारा,
पौरुष प्रदर्शन मेरा.
इसे तो नहीं कहेंगे-
तुम्हारा स्वयंवर ?

शिवधनुष पर
प्रत्यंचा चढ़ाने का गुमान.
हजार नृपों पर,
जयी होने का अभिमान.
और...
जीवन भर
यही सुभीते* रहा सीते !

बांधी गई लक्ष्मण रेखा-
मुझे भय था.
वो तो तुम थी,
तुम्हें नहीं भायी
सोने की लंका.
वरना...
हारता मेरा पौरुष-
रावण को स्वीकारती जो तुम.

फिर भी...
प्रेम न कर सका तुमको.

आखिर
तुम्हारी
अग्निपरीक्षा क्यों ?
धोबी की दृष्टि-
मैला आंचल ही,
हो सकती थी.
तुम निमित्त मात्र बनी सीते !
शंका न मिटाता,
झेंप न छुपाता,
तुम्हें
प्रेम जो करता.

सदियों से
मैंने झूठ बोला है.
'राम राज्य' के आवरण में
मैंने-
अपने पौरुषत्व की
सत्ता खड़ी की है.

तुमसे अप्रेम कर,
मैं मर्यादित कहां सीते !
मेरी स्वीकारोक्ति है-
मैं मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं
सीते !
                                 (अभय श्रीवास्तव)

* सुभीते - convenience, vantage, concession

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