हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

जी लो ज़िंदगी

ज़िंदगी के सवालों को कुछ वक़्त दे दो.
तेज़ चढ़ी धूप को दरख़्त दे दो.

दम घुट रहा हवा का कमरे में,
थोड़ी रौशनी का बंदोबस्त दे दो.

हड्डी-पसली टूटती रही ख़्वाबों की,
आंखें नंगी रखने का आदेश सख़्त दे दो.

वो तो सदियों से मुफ़लिस रहा है,
इक बार उसको ताज-ओ-तख़्त दे दो.

किसी स्वर्ग-नर्क में अब नहीं होता फ़ैसला,
शहर की भीड़ में सबको इक दस्त दे दो.
                           (अभय श्रीवास्तव)

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