हिलोरें लेती हुई,
एक नदी मेरे भीतर !
मन के शांत तटबंधों को बहाती हई
वर्जनाओं की गाद से उफनाती हुई
एक सदी मेरे भीतर !
एक नदी मेरे भीतर !
व्यग्रता के चट्टान चीरती
चप्पुओं से खेलती
कटीली हवाओं में
अश्रुमिश्रित गतिमान धाराएं
कैसी उन्मुक्तता बिंधी मेरे भीतर !
एक नदी मेरे भीतर !
प्राण संगीत अविरल
नहीं कोई कोलाहल
तट पर खड़े थे वृक्ष
मानो अड़े थे वृक्ष
जकड़े-अकड़े खूब गहरे तक
जड़मान, शोकमग्न, पराजित
परंतु अनंत चक्र छूटा
अभेद व्यूह टूटा
तुमने प्रणय गीत गाया
दुर्योधन की सभा में,
अब नहीं लाज में गड़ी द्रौपदी मेरे भीतर !
एक नदी मेरे भीतर !
(अभय श्रीवास्तव)
3 टिप्पणियां:
Super Dude :)
मन के द्वंद को खूबसूरत शब्द दिए ...बहुत खूब
बहुत खूब कविराज... गागर में मन की व्यग्रताओं का सागर उंडेल दिया...
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