हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

शनिवार, 19 जनवरी 2013

प्रणय क्रांति

गंभीर गर्जना !
हिलोरें लेती हुई,
एक नदी मेरे भीतर !

मन के शांत तटबंधों को बहाती हई
वर्जनाओं की गाद से उफनाती हुई
एक सदी मेरे भीतर !
एक नदी मेरे भीतर !

व्यग्रता के चट्टान चीरती
चप्पुओं से खेलती
कटीली हवाओं में
अश्रुमिश्रित गतिमान धाराएं
कैसी उन्मुक्तता बिंधी मेरे भीतर !
एक नदी मेरे भीतर !

प्राण संगीत अविरल 
नहीं कोई कोलाहल
तट पर खड़े थे वृक्ष
मानो अड़े थे वृक्ष
जकड़े-अकड़े खूब गहरे तक
जड़मान, शोकमग्न, पराजित

परंतु अनंत चक्र छूटा
अभेद व्यूह टूटा
तुमने प्रणय गीत गाया

दुर्योधन की सभा में,
अब नहीं लाज में गड़ी द्रौपदी मेरे भीतर !
एक नदी मेरे भीतर !
                                                                             (अभय श्रीवास्तव)

3 टिप्‍पणियां:

Gaurav ने कहा…

Super Dude :)

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

मन के द्वंद को खूबसूरत शब्द दिए ...बहुत खूब

MAHENDRA SAINI ने कहा…

बहुत खूब कविराज... गागर में मन की व्यग्रताओं का सागर उंडेल दिया...

बातें करनी है तो...

संपर्क -
ई-पता : aabhai.06@gmail.com
दूरभाष : +919811937416

@ Copyrights:

कंटेट पर कॉपीराइट सुरक्षित है. उल्लंघन पर विधिमान्य तरीकों से चुनौती दी जा सकती है.