हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015

ज़िंदगी की ज़रूरतें

छिपकलियों सी रेंगती ज़रूरतें,
ज़िंदगी ज्यों दीवार पर संतुलन की कसरतें।

















छिपकलियों सी रेंगती ज़रूरतें,
ज़िंदगी ज्यों दीवार पर संतुलन की कसरतें।

मामूली आदमी होना मानो इक शर्त है,
कैसे निबाहूं नौ लखा हसरतें।

मुस्कुरा देना मजबूरियों पर,
कैसी अदाकारी है सभ्य होने की हरकतें।


यूं तो चंद आनों में बिक जाता है आदमी,
बस आसमान छूती हैं दाल-रोटी की कीमतें।

अनुभवों का उम्र से क्या ताल्लुक,
हर शख़्स को वक़्त ने ही सिखायी रवायतें।

उसने ही लिया ज़िंदगी का मज़ा,
कांधे पे जो ढोता रहा बच्चों सी शरारतें।
                                                (अभय)

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