हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

...क्योंकि अब फेसबुक होती है ज़िंदगी

...क्योंकि अब फेसबुक होती है ज़िंदगी.
मिज़ाज बदलते हैं,
स्टेटस बदल जाता है.

कई अपने, कुछ पराये
लाइक करते हैं
कॉमेन्ट करते हैं
वर्चुअल स्पेस पर
मेरे यथार्थ का प्रतिबिम्ब देखते हैं.
बड़ी सोशल होती है ज़िंदगी
...क्योंकि अब फेसबुक होती है ज़िंदगी.

मैंने पब्लिक कर रखी है प्राइवेसी सेटिंग्स
आओ देखो मुझे
टैग कर लो मुझे अपने साथ
साझा हो जाओ मुझसे
मेरे निजी अनुभवों के भागीदार बनो.
कितनी अपरिचित पहचान होती है ज़िंदगी.
...क्योंकि अब फेसबुक होती है ज़िंदगी.

तुमने मुझे कितना जाना है?
जितना कि स्टेटस में पढ़ा है
आख़िर कितना पढ़ा है?
जितना कि मैंने लिखा है
लेकिन अलिखित दस्तावेज़ क्या नहीं हूं मैं?
मुंशी जी की की-बोर्ड होती है ज़िंदगी.
...क्योंकि अब फेसबुक होती है ज़िंदगी.

इंटरनेट का कनेक्शन टूटा नहीं
कि छूट गए तुम
थोड़ी देर पहले तक
ऑनलाइन खिड़की पर खड़े थे
सेकेंडों में मीलों का संवाद था.
अकेले में ऑफलाइन होती है ज़िंदगी.
...क्योंकि अब फेसबुक होती है ज़िंदगी.
                        (अभय श्रीवास्तव)

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