हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

मैं तो यही कहूंगा

पाखंडी हैं दलित.

उनके
घर बना डालते हैं
मंदिर बना डालते हैं
लेकिन
अजीब बात है
उन दीवारों को
छूने से डर लगता है.

उनके
बर्तन-भाड़े
जब गढ़े जा रहे थे
तब तुम्हारा पसीना नहीं चुआ था क्या?
समझ नहीं आता
तुम्हारे बर्तन-भाड़े अलग क्यों हैं?

कपड़े की फैक्ट्री में
तुम्हीं हड्डियां गला रहे थे
छीन क्यों नहीं लाते हो कुछ कपड़े
अपना ना सही
बच्चों का ख्याल करो
फटे कपड़ों में
बच्चों के चूतड़ दिख रहे हैं.

किसका खौफ खा रहे हो?
वो बस मुट्ठी भर
और तुम
बहुजन हो.
जब तक
तुम सर्वजन नहीं बनते
मैं तो यही कहूंगा
पाखंडी हैं दलित.
            (अभय श्रीवास्तव)

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