हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

रविवार, 1 सितंबर 2013

नहीं-नहीं-नहीं बाबा

सुन मेरी मुनिया सुन.
तू इक दूजी दुनिया चुन.

यहां चोर बड़े अस्मत के,
यहां लड़ने का ना रखना बिटिया धुन.

हां-हां 'कैरेक्टर' की फसल खड़ी थी,
पर फसल में लग गया घुन.

तुझको 'गुड़िया-गुड्डा' खेल लगे है,
उनके खेल में तू ही 'गुड़िया' चुनमुन.

नहीं-नहीं-नहीं बाबा.

दूजी दुनिया क्यों?
अस्मत चोरों से डरना क्यों?
मन की चिन्गारी घुनी फसल में आग लगाएगी,
'गुड़िया' आज खिलंदड़ों को मार भगाएगी.

बाबा तुम्हारे उस स्पर्श की सौगंध,
जब तुमने जन्मते मुझे सीने से लगाया था.
गाल पर होठों से हल्की थपकी दी थी.
तुम भी पुरुष हो,
कितनी मीठी थी वो पप्पी,
कितनी निर्दोष थी वो.                                                
कितनी अपनी थी वो.
गर मैं भाग गई, डर गई,
तो क्या -
वो तुम्हारा पहला स्पर्श कलंकित नहीं होगा?

नहीं-नहीं-नहीं बाबा.
                                             (अभय श्रीवास्तव)

कोई टिप्पणी नहीं:

बातें करनी है तो...

संपर्क -
ई-पता : aabhai.06@gmail.com
दूरभाष : +919811937416

@ Copyrights:

कंटेट पर कॉपीराइट सुरक्षित है. उल्लंघन पर विधिमान्य तरीकों से चुनौती दी जा सकती है.