हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

दफ़्तर का राजधर्म !

उन लोगों ने मुझे -
मां की गाली दी.
पीठ पीछे नहीं,
मुंह पर.
मैं बुद्ध बन गया,
नहीं स्वीकार की उनकी घृणा.
वे लोग ही चक्कर काटते रहे,
आगे-पीछे.

धीरे-धीरे मैंने उन्हें घुमाया,
अपने चारों ओर,
दिनों-महीनों, कभी-कभी कई साल.
इस तरह,
गणेश बने उन लोगों के लिए,
मैं बन गया शिव.

मैंने उन्हें उपदेश दिया,
यथार्थ समझने का,
वर्तमान जानने का.
मैं दार्शनिक हो गया,
पहुंचा हुआ महात्मा हुआ.

मैंने उन्हें-
कैंटीन की गर्माई हुई चाय पिलाई.
भविष्य में हर तरह से,
मदद का भरोसा भी दिलाया.

इस तरह सारे जतन कर,
ऑफिस की परंपरा का-
मैंने बखूबी पालन किया.

एक बनावटी मुस्कान से,
मैंने रिश्वत खाई.
                                 (अभय श्रीवास्तव)

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