हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

मन को मना लेंगे !

इतनी गहराई भी क्या अच्छी !
भरी महफिल में तन्हाई भी क्या अच्छी !

हमारी आंख से मोती अब बरसते नहीं,
ग़रीब की बेसबब रुलाई भी क्या अच्छी !

समंदर पार के परिंदों को मालूम है,
बदलते मौसम में आशनाई भी क्या अच्छी !

दरख़्त को बूढ़े होने का अहसास है,
जड़ों की बेअदब कटाई भी क्या अच्छी !

रिश्तों को नया नाम दे दें मगर,
हुई चीज़ पराई भी क्या अच्छी !

हमसफ़र तेरा उसूल पक्का है,
साथ चलने में जुदाई भी क्या अच्छी !
                                             (अभय श्रीवास्तव) 

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