(जून 2013 से पहले उत्तराखंड में टूटे पहाड़ों, कटे पेड़ों और मंदाकिनी की छेड़ी गई धाराओं के नाम)
कुछ चींटियां आ चिपकी हैं,
मेरे होठों पर.
घुस बैठी हैं मेरी आंखों में.
दिमाग की नसों में बह रही हैं,
रक्त कणिकाओं की मानिंद.
लोभ की चींटियां-
अश्रु-मंदाकिनी का दर्द नहीं समझती हैं.
टूट पड़े ह्रदय पाषाणों की,
व्यथा नहीं समझती हैं.
और तब,
आंगन का तुलसी दल उखड़ जाता है.
जैसे पांव उखड़ते हैं.
जैसे देवदार उखड़ा था.
लोभ की चींटियां-
उफनती मंदाकिनी में,
बहकते पाषाणों से चिपकी,
मौत का सामना करती हैं.
गले के थैले में,
लोभ की चींटियां लटकाकर कुछ लोग,
उन्हें जंग बहादुर कहते हैं,
जो अभी मंदाकिनी में बह गए.
सच में कितना निरर्थक है,
ये सामूहिक शोकगान.
मेरे पूरे शरीर को नोंच रही हैं,
कुछ चींटियां.
मृत उपलब्धियों का मवाद पी रही हैं.
खंड-खंड मांसल लोथड़ों में,
चींटियों का पूरा कुतुबमीनार खड़ा है.
लोभ की चींटियां-
आती कहां से हैं?
(अभय श्रीवास्तव)
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