हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

गुरुवार, 6 जून 2013

इन दिनों

बैंक लॉकर में रख आया हूं -
इज्ज़त, प्रेम, ईमान...
बेशक़ीमती हर चीज़,
बूढ़े बाबा सा संजोता हूं सब जायदाद.
इन दिनों.

कितनी सस्ती है मेरी शख़्सियत -
खूब पहनता हूं...
सोना-चांदी और हीरा,
रजनीगंधा के बाग उगा रखे हैं सीने पे.
इन दिनों.

फ़क़त हैसियत मेरी पूछते हो -
यूं तो कमा रखे हैं...
हाथी-घोड़े और मोहरे,
बस ख़ुद पे यकीं नहीं होता.
इन दिनों.

क्यों न फूंक दें -
दुनिया भर की 'करेंसी'...
मुए कुछ काग़ज़ों ने,
बहुत आतंक मचा रखा है.
इन दिनों.
                                      (अभय श्रीवास्तव)

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