वे शबाब हैं कितने बेहिसाब हैं.
यहां जान जाती है और वे जनाब हैं.
हमारा इश्क सूखी रोटी से रहा है,
गोल-गोल दूर-दूर वो तो माहताब हैं.
आंखों में खुमार है, लुट गया क़रार है,
फ़कत रोटी के ख़्वाब लाजवाब हैं.
पीछे कतार में हर जगह खड़ा रहा,
ग़रीब की ये दिल्लगी, अमीर के रुआब हैं.
होश उसूलों का बना रखा है, वर्ना,
रोटी तो ग़ज़ल है, निवाले शराब हैं.
(अभय श्रीवास्तव)
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