हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

काश !

कोई क़िताबों में मेरी खुशबू रखता.
मैं ग़रीब हूं यूं बदन के आंसू रखता.

जज़्बात भरे कागज़ तो बहुत मोड़े,
मुट्ठी में वो ऐसे आरजू रखता.

दर्द-दवा-दिल्लगी सब है लेकिन,
काश ! वो आंखों में लहू रखता.

तेरे बदन और ग़रीबी में फ़र्क नहीं,
कहे भेड़िया भूखा-कैसे काबू रखता.

बिटिया ने चेहरे पे नन्ही हथेली फेरी,
क्यूं न हर कोई ऐसा जादू रखता.

तपाक से मैंने बोल दिया सच,
कब तलक सीने में टापू रखता.
                                   (अभय श्रीवास्तव)

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