पागल-पागल हम फिरते हैं.
जंगल-जंगल हम चलते हैं.
आंखों में कोई गीत लिए,
नदिया-नदिया हम बहते हैं.
रेत की कच्ची दीवारों सा,
बनते-बनते हम ढहते हैं.
तुलसी आंगन नीम के चंदन,
पोखर-पोखर हम रहते हैं.
उनकी सियासत वे ही समझें,
नादां-नादां हम मिलते हैं.
इंद्रधनुष सा होता जीवन,
कूची-कूची हम रंगते हैं.
(अभय श्रीवास्तव)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें