हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

पगला मन

पागल-पागल हम फिरते हैं.
जंगल-जंगल हम चलते हैं.

आंखों में कोई गीत लिए,
नदिया-नदिया हम बहते हैं.

रेत की कच्ची दीवारों सा,
बनते-बनते हम ढहते हैं.

तुलसी आंगन नीम के चंदन,
पोखर-पोखर हम रहते हैं.

उनकी सियासत वे ही समझें,
नादां-नादां हम मिलते हैं.

इंद्रधनुष सा होता जीवन,
कूची-कूची हम रंगते हैं.
                                               (अभय श्रीवास्तव)

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