हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

ज़िंदगी मिरी आंखों में

आकाशगंगा लाजवाब मिरी आंखों में.
अरबों सूरज से ख़्वाब मिरी आंखों में.

तूने आकाश उठा रक्खा है,
दिले दरिया के आब मिरी आंखों में.

अक्सर मुझे ख़ुद का ठिकाना नहीं मिलता,
सरेराह छलकते हैं शराब मिरी आंखों में.

दुपहरी किस कदर चढ़कर खड़ी,
चुंधियाई ज़िंदगी बेहिसाब मिरी आंखों में.

सच बोलना तो मिरा मज़हब था,
ख़ुदा ख़ौफ़जदा अब रखे ताब मिरी आंखों में.

लाखों थे कुंभ में पर गंगा न थीं,
सिकुड़ी हुई औरत, लुटा रुआब मिरी आंखों में.

अब के आना तसल्ली भरके आना,
बहुत रक्खी है किताब मिरी आंखों में.
                                                        (अभय श्रीवास्तव)

2 टिप्‍पणियां:

Umesh Maurya ने कहा…

Bahut aachi lagi.

Madan Mohan Saxena ने कहा…

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