हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

देवी नागरानी की दो ग़ज़लें

1.
उड़ गए बालो-पर उड़ानों में
सर पटकते हैं आशियानों में

जल उठेंगे चराग़ पल भर में
शि्ददतें चाहिये तरानों में

नज़रे- बाज़ार हो गए रिश्ते
घर बदलने लगे दुकानों में

धर्म के नाम पर हुआ पाखंड
लोग जीते हैं किन गुमानों में

कट गए बालो-पर, मगर हमने
नक्श छोड़े हैं आसमानों में

वलवले सो गए जवानी के
जोश बाक़ी नहीं जवानों में

बढ़ गए स्वार्थ इस क़दरदेवी
एक घर बंट गया घरानों में
**

2.
बाकी तेरी याद की परछाइयां रहीं
बस मेरी ज़िंदगी में ये तन्हाइयां रहीं

डोली तो मेरे ख़्वाब की उठ्ठी नहीं, मगर
यादों में गूंजती हुई शहनाइयां रहीं

बचपन तो छोड़ आए थे, लेकिन हमारे साथ
ता- उम्र खेलती हुई अमराइयां रहीं

चाहत, वफ़ा, ख़ुलूस के रिश्ते बदल गए
जज़बात में आज वो गहराइयां रहीं

आखिर असर बुराइयों का उनपे यूं हुआ
देवीजहां में अब कहां अच्छाइयां रहीं

देवी नागरानी  जानी-मानी साहित्यकार हैं.

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

आपका लेख/आपकी कविता निर्झर टाइम्स पर लिंक की गयी है। कृपया इसे देखें http://nirjhar-times.blogspot.com और अपने सुझाव दें।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

लाजबाब गजल, न सिर्फ गजलों में रिदम है अपितु समसामयिकता को बखूबी दर्शा रही है। आभार !

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