हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

शनिवार, 24 नवंबर 2012


तुम भूल गए

भभराई आंखों में तुम थे,
तुमने बस फव्वारे देखे।

आते, कुछ बातें कर जाते।
गुड्डू-चुन्नू का हाल सुनाते।
डंडी-पगडंडी-गांव की मंडी,
सच कुछ कहते, कुछ बात बनाते।
आते, कुछ बातें कर जाते।

तकती आंखों में तुम थे,
तुमने बस कुछ साये देखे।

निष्ठुर प्राण हुए तुम।
ह्रदय पाषाण हुए तुम।
प्रश्न बुझी जिह्वा पर,
विष बाण हुए तुम।
निष्ठुर प्राण हुए तुम।

अकुलाई आंखों में तुम थे,
तुमने बस अंगारे देखे।

तुम मेरे सहभागी थे।
सखा सहोदर अनुरागी थे।
कदमताल वह स्वर्णकाल,
पग-पग पर प्रतिभागी थे।
तुम मेरे सहभागी थे।

हुलसाई आंखों में तुम थे,
तुमने बस सरमाये देखे।

तुम मेरे हो, मैं तुम हूं।
तेरा अपना अंतरतम हूं।
काल क्रमण में भूल गए,
मैं तेरे यथार्थ का उद्गम हूं।
तुम मेरे हो, मैं तुम हूं।

पुरवाई आंखों में तुम थे,
तुमने बस डूबे-उतराए देखे।












6 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

कबीर के क्रम में और कबीरी के भ्रम में आप छल कर रहे हैं गुरूदेव

kahekabeer ने कहा…

हम यहां पर छल भी कर रहे हैं, तो निश्छल होकर, निर्दोष होकर... और इसकी स्वीकारोक्ति के साथ।

BALRAMPUR ने कहा…

हम सब कबीर हैं...

बढिया

तकती आंखों में तुम थे

तुमने बस कुछ साये देखे।

बढिया अभय जी अच्छाा लिखते है आप , बनाये रखें लेखनी की धार , शुभकामनाए

kahekabeer ने कहा…

@raja balrampur
धन्यवाद मित्र

Unknown ने कहा…

इसमें कोई दो राय नहीं गोंडवी साहब...लेकिन क्या कबीरी निर्दोष, निश्छल होकर दूसरों को अपने सुख दुख के लिए जरा सा ऊपर नीचे करने देने में भी मक्कारी है

kahekabeer ने कहा…

बिल्कुल नहीं चित्रांश बाबू, कबीरी का यही मर्म तो समझना होगा

बातें करनी है तो...

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