हर निगाह चुराती है नज़र ख़ुदी से,
न रहा एतबार का असर ख़ुदी से।
बाख़बर रहे अखबार के पन्नों से सभी,
लुटते रहे एहसास के मंज़र ख़ुदी से।
वो पत्थर ही रहा तराशा न कभी गया,
कह रहा आज हर ज़िगर ख़ुदी से।
लौट के ये कौन घर को नहीं गया,
गुज़र गई शाम बहककर ख़ुदी से।
भीड़ में खोने का भी अपना है मज़ा,
चले जाते हैं चुपचाप संभलकर ख़ुदी से।
(अभय श्रीवास्तव)
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