1.
तस्वीर ये बदलनी है आवाज़ करो.
हुंकार है, देश अब आज़ाद करो.
बेईमानी की जंजीर में जकड़े हुए
झूठ और फरेब से रगड़े हुए
लोकतंत्र अब लोभतंत्र
गणतंत्र बस तंत्र-मंत्र
सच्चाई को छुपा गए
फ़र्ज़ को भुला गए
राजनीति-राजनीति
नीति को मिटा गए.
तस्वीर ये बदलनी है आवाज़ करो.
हुंकार है, देश अब आज़ाद करो.
रोज़-रोज़ घुटते हैं
कदम-कदम लुटते हैं
सत्ता पे दीमक लोभ का
घपले-घोटालों के भोग का
सोए हुए जाग जा, दम लगा
हक़ अपना मांग तू
तख़्त हो उड़न-छू छीन ले ताज तू
न रुके न झुके आज तू
तस्वीर ये बदलनी है आवाज़ करो.
हुंकार है, देश अब आज़ाद करो.
2.
मालिक हैं मुख़्तार हैं
फिर भी क्यों लाचार हैं?
संविधान ने दी है 'लाठी'
लेकिन ये कैसी परिपाटी?
लंगड़े बन गए, बूढ़े बन गए,
'युवाशक्ति' भूले हम साथी
ऐसे क्यों बेकार हैं?
मालिक हैं मुख़्तार हैं
फिर भी क्यों लाचार हैं?
चैन की बंसी 'नीरो' बजाए
जले हमारा रोम-रोम
जनता-जनार्दन बनी सुदामा
सत्ता बनी विलोम
कैसी मजबूरी भूले हम अधिकार हैं?
मालिक हैं मुख़्तार हैं
फिर भी क्यों लाचार हैं?
जेब पे डाका,
गुरूर की बोली
क्यों भई, क्यों भई?
चारों ओर बेईमानों की टोली
इतने हम बीमार हैं?
मालिक हैं मुख़्तार हैं
फिर भी क्यों लाचार हैं?
(अभय श्रीवास्तव)
तस्वीर ये बदलनी है आवाज़ करो.
हुंकार है, देश अब आज़ाद करो.
बेईमानी की जंजीर में जकड़े हुए
झूठ और फरेब से रगड़े हुए
लोकतंत्र अब लोभतंत्र
गणतंत्र बस तंत्र-मंत्र
सच्चाई को छुपा गए
फ़र्ज़ को भुला गए
राजनीति-राजनीति
नीति को मिटा गए.
तस्वीर ये बदलनी है आवाज़ करो.
हुंकार है, देश अब आज़ाद करो.
रोज़-रोज़ घुटते हैं
कदम-कदम लुटते हैं
सत्ता पे दीमक लोभ का
घपले-घोटालों के भोग का
सोए हुए जाग जा, दम लगा
हक़ अपना मांग तू
तख़्त हो उड़न-छू छीन ले ताज तू
न रुके न झुके आज तू
तस्वीर ये बदलनी है आवाज़ करो.
हुंकार है, देश अब आज़ाद करो.
2.
मालिक हैं मुख़्तार हैं
फिर भी क्यों लाचार हैं?
संविधान ने दी है 'लाठी'
लेकिन ये कैसी परिपाटी?
लंगड़े बन गए, बूढ़े बन गए,
'युवाशक्ति' भूले हम साथी
ऐसे क्यों बेकार हैं?
मालिक हैं मुख़्तार हैं
फिर भी क्यों लाचार हैं?
चैन की बंसी 'नीरो' बजाए
जले हमारा रोम-रोम
जनता-जनार्दन बनी सुदामा
सत्ता बनी विलोम
कैसी मजबूरी भूले हम अधिकार हैं?
मालिक हैं मुख़्तार हैं
फिर भी क्यों लाचार हैं?
जेब पे डाका,
गुरूर की बोली
क्यों भई, क्यों भई?
चारों ओर बेईमानों की टोली
इतने हम बीमार हैं?
मालिक हैं मुख़्तार हैं
फिर भी क्यों लाचार हैं?
(अभय श्रीवास्तव)
3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर!
आपकी कविता निर्झर टाइम्स पर लिंक की गयी है। कृपया इसे देखें http://nirjhar-times.blogspot.com और अपने सुझाव दें। आप द्वारा सहमति प्राप्त होने पर आपकी कविता निर्झर टाइम्स साप्ताहिक के अगले अंक में प्रकाशित की जाएगी। इस प्रकाशन के लिए कोई मानदेय देय नहीं होगा।
सादर!
बृजेश जी् धन्यवाद. आप अवश्य मेरी कविता निर्झर टाइम्स साप्ताहिक में प्रकाशित कर सकते हैं.
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