हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

दहशत

पुणे की कवियित्री मिनाक्षी भालेराव ने आम आदमी के अवचेतन में घर कर चुकी व्यग्रता को सरलता से व्यक्त किया है। प्रस्तुत कविता को हिंदी मानस की उसी सरलता के सापेक्ष लिया जाए। (मॉडरेटर)

कभी हुआ करता था डर
डाकू और उनकी बंदूकों से !
अब खद्दरधारी नेता मिलकर
कैसा खून चूस रहे हैं जनता का

पहले एक साहूकार हुआ करता था !
खून चूसने वाली जोंक
आज तो पग-पग पर बैठे हैं,
ड्रकुला बन नेताओं के भेस में

काले कपड़े पहने घूमा करते थे !
डाकू, लुटेरे तो बस जंगलों में,
आज संसद में जा बैठे वो,
कपड़े सफेद पहनकर

डाकू तो लूटा करते थे,
बंदूकों की ज़ोर पर
आज वही शहर-शहर घूम-घूम कर
बम-गोले बरसाते हैं

शहर जहां बदनाम थे !
डर और ख़ौफ़ के लिए,
आज हर शहर-गांव
गली-गली में दहशत है!


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