हिंदी साहित्य के शोधार्थी गोविंद बैरवा ने जीवन को समझने की एक छोटी सी कोशिश की है. इनके शब्दों में अपने जीवन की उलझनों को ढूंढ़िए तो कविता में मज़ा ज़रूर आएगा. (मॉडरेटर)
हर गुजरता दिन एक कहानी लिख जाता है
खोकर पाने की अभिलाषा, ये दिन जगाता है
पल में हंसाकर, पल में ये दिन रुलाता है
सुख-दुःख से पहचान ये दिन, रोज़ कराता है
रात का अंधेरा दिन की प्रतिकियाएं दोहराता है
हार-जीत का द्वंद चढ़ती रातों में
जगाता है
फिर आएगा दिन का सवेरा,
बंद आंखों में वो किस्मत आजमाता है
दिन-रात इंसान सिर्फ उलझन ही जोड़ पाता है
दिन निस्पृह रिक्त और रात आक्रांत...
खुद को जानने की चाहत में रोज़ नये
रूप,
दुनिया के समक्ष सिर्फ चेहरा नया ही
दिखाता है
कल शेष रही कहानी को नये सिरे से लिखने
की,
उमंग के साथ उम्मीद वो जगाता है
दिन का गुजरता पड़ाव सिर्फ यही बताता है
हर गुजरता दिन एक कहानी लिख जाता है
कवि परिचय: मूलरूप से राजस्थान के पाली ज़िले के रहने वाले गोविंद बैरवा गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के शोधार्थी हैं. आप की कहानी-कविताएं विभिन्न इंटरनेट पत्रिकाओं में छप चुकी है.
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