हिंदी कविता का अथेंटिक ठिकाना

गुरुवार, 28 मार्च 2013

अज्ञेय की कलम से

जो पुल बनाएंगे
जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएंगे.
सेनाएं हो जाएंगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम;
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएंगे.

पक गई खेती

वैर की परनालियों में हंस-हंस के
हम ने सींची जो राजनीति की रेती
उस में आज बह रही खूं की नदियां हैं.
कल ही जिस में खाक-मिट्टी कह के हमने थूका था
घृणा की आज उस में पक गई खेती
फस्ल काटने को अगली सदियां हैं.

हवाएं चेत की

बह चुकीं बहकी हवाएं चेत की
कट गई पूलें हमारे खेत की
कोठरी में लौ बढ़ाकर दीप की
गिन रहा होगा महाजन सेंत की.


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